ब्रह्मपुराण
अध्याय – ६३
यमलोक के मार्ग और चारों द्वारों का वर्णन
मुनि बोले – ब्रह्मन ! आपके मुखसे निकले हुए पुण्यधर्ममय वचनामृतों से हमें तृप्ति नहीं होती, अपितु अधिकाधिक सुनने की उत्कंठा बढती जाती हैं |मुने ! आप परम बुद्धिमान हैं और प्राणियों की उत्पत्ति, लय और कर्मगति को जानते हैं; इसलिये हम आपसे और भी प्रश्न करते हैं | सुनने में आता ही कि यमलोक का मार्ग बड़ा दुर्गम हैं | वह सदा दुःख और क्लेश देंनेवाला हैं तथा समस्त प्राणियों के लिये भयंकर हैं | उस मार्ग की लंबाई कितनी है तथा मनुष्य उस मार्ग से यमलोक की यात्रा किसप्रकार करते हैं ? मुने ! कौन-सा ऐसा उपाय हैं, जिससे नरक के दु:खों की प्राप्ति न हो ?
व्यासजी ने कहा – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मुनिवरो ! सुनो | यह संसारचक्र प्रवाहरूप से निरंतर चलता रहता है | अब मैं प्राणियों की मृत्यु से लेकर आगे जो अवस्था होती है, उसका वर्णन करूँगा | इसी प्रसंग में यमलोक के मार्ग का भी निर्णय किया जायगा | यमलोक और मनुष्यलोक में छियासी हजार योजनों का अंतर हैं | उसका मार्ग तपाये हुए ताँबे की भांति पूर्ण तप्त रहता है | प्रत्येक जीव को यमलोक के मार्ग से जाना पड़ता हैं | पुण्यात्मा पुरुष पुण्यलोकों में और नीच पापाचारी मानव पापमय लोकों में जाते हैं | यमलोक में बाईस नरक हैं, जिनके भीतर पापी मनुष्यों को पृथक-पृथक यातनाएँ दी जाती हैं | उन नरकों के नाम ये हैं- नरक, रौरव, रौद्र, शूकर, ताल, कुम्भीपाक, महाघोर, शाल्मल, विमोहन, कीटाद, कृमिभक्ष, लालाभक्ष, भ्रम, पीब बहानेवाली नदी, रक्त बहानेवाली नदी, जल बहानेवाली नदी, अग्निज्वाल, महारौद्र, संदेश, शुनभोजन, घोर वैतरणी और असिपत्रवन | यमलोक के मार्ग में न तो कहीं वृक्ष की छाया हैं न तालाब और पोखरे हैं, न बावड़ी, न पुष्करिणी हैं, न कूप है न पीसले हैं, न धर्मशाला हैं न मंडप है, न घर है न नदी एवं पर्वत हैं और न ठहरने के योग्य कोई स्थान ही है, जहाँ अत्यंत कष्ट में पड़ा हुआ थका-माँदा जीव विश्राम कर सके | उस महान पथपर सब पापियों को निश्चय ही जाना पड़ता हैं | जीवों को यहाँ जितनी आयु नियत है, उसका भोग पूरा हो जानेपर इच्छा न रहते हुए भी उसे प्राणों अक त्याग करना पड़ता हैं | जल, अग्नि, विष, क्षुधा, रोग अथवा पर्वतसे गिरने आदि किसी भी निमित्त को लेकर देहधारी जीव की मृत्यु होती है | पाँच भूतों से बने हुए इस विशाल शरीर को छोडकर जीव अपने कर्मानुसार यातना भोगंने के योग्य दूसरा शरीर धारण करना हैं | उसे सुख और दुःख भोगने के लिये सुदृढ़ शरीर की प्राप्ति होती है | पापाचारी मनुष्य उसी देह से अत्यंत कष्ट भोगता हैं और धर्मात्मा मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक सुख का भागी होता है |
शरीर में जो गर्मी या पित्त है, वह तीव्र वायु से प्रेरित होकर जब अत्यंत कुपित हो जाता है, उस समय बिना ईधन के ही उद्दीप्त हुई अग्नि की भांति बढकर मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता हैं | तत्पश्चात उदान नामक वायु ऊपर की ओर उठता हैं और खाये-पीये हुए अन्न-जल को नीचे की ओर जाने से रोक देता हैं | उस आपत्ति की अवस्था में भी उसी को प्रसन्नता रहती है, जिसने पहले जल, अन्न एवं रसका दान किया हैं | जिस पुरुष ने श्रद्धा से पवित्र किये हुए अंत:करण के द्वारा पहले अन्नदान किया है, वह उस रुग्णावस्था में अन्न के बिना भी तृप्तिलाभ करता हैं | जिसने कभी मिथ्याभाषण नही किया, दो प्रेमियों के पारस्परिक प्रेम में बाधा नहीं डाली तथा जो आस्तिक और श्रद्धालु है, वह सुखपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होता है | जो देवता और ब्राह्मणों की पूजा में संलग्न रहते, किसी की निंदा नहीं करते तथा सात्त्विक, उदार और लज्जाशील होते है, ऐसे मनुष्यों को मृत्यु के समय कष्ट नहीं होता | जो कामनासे, क्रोध से अथवा द्वेष के कारण धर्म का त्याग नहीं करता, शास्त्रोक्त आज्ञा का पालन करनेवाला तथा सौम्य होता हैं, उसकी मृत्यु भी सुख से होती है | जिन्होंने कभी जल का दान नहीं किया हैं, उन मनुष्यों को मृत्युकाल उपस्थित होनेपर अधिक जलन होती है तथा अन्नदान न करनेवालों को उससमय भूख का भारी कष्ट भोगना पड़ता हैं | जो लोग जाड़े के दिनों में लकड़ी दान करते हैं, वे शीत के कष्ट को जीत लेते हैं | जो चन्दन दान करते हैं, वे तापपर विजय पाते हैं तथा जो किसी भी जीव को उद्वेग नही पहुँचाते, वे मृत्युकाल में प्राणघातिनी क्लेशमय वेदना अक अनुभव नहीं करते | ज्ञानदाता पुरुष मोहपर और दीपदान करनेवाले अन्धकारपर विजय पाते हैं | जो झूठी गवाही देते, झूठ बोलते, अधर्म का उपदेश देते और वेदों की निंदा करते हैं, वे सब लोग मूर्च्छाग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होते है |
ऐसे लोगों की मृत्यु के समय यमराज के दुष्ट दूत हाथों में हथौड़ी एवं मुद्रर लिये आते हैं; वे बड़े भयंकर होते है और उनकी देहसे दुर्गन्ध निकलती रहती है | उन यमदूतोंपर दृष्टि पड़ते ही मनुष्य काँप उठता हैं और भ्राता, माता तथा पुत्रों का नाम लेकर बारंबार चिल्लाने लगता हैं | उस समय उसकी वाणी स्पष्ट समझ में नहीं आती | एक ही शब्द, एक ही आवाज-सी जा पडती हैं | भय के मारे रोगी की आँखे झुमने लगती है और उसका मुख सूख जाता हैं | उसकी साँस ऊपर को उठने लगती है | दृष्टि की शक्ति भी नष्ट हो जाती है | फिर वह अत्यंत वेदना से पीड़ित होकर उस शरीर को छोड़ देता है और वायु के सहारे चलता हुआ वैसे ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता हैं जो रूप, रंग और अवस्था में पहले शरीर के समान ही होता हैं | वह शरीर माता-पिता के गर्भ से उत्पन्न नहीं, कर्मजनित होता हैं और यातना भोगने के लिये ही मिलता हैं; उसीसे यातना भोगनी पडती है | तदनंतर यमराज के दूत शीघ्र ही उसे दारुण पाशों से बाँध लेते हैं | मृत्युकाल आनेपर जीव को बड़ी वेदना होती है, जिससे वह अत्यंत व्याकुल हो जाता हैं | उस समय सब भूतों से उसके शरीर का सम्बन्ध टूट जाता हैं | प्राणवायु कंठतक आ जाती हैं और जीव शरीर से निकलते समय जोर-जोर से रोता है | माता, पिता, भाई, मामा, स्त्री, पुत्र, मित्र और गुरु – सबसे नाता छुट जाता है | सभी सगे-सम्बन्धी नेत्रों में आँसू भरे दु:खी होकर उसे देखते रह जाते है और वह अपने शरीर को त्यागकर यमलोक के मार्गपर वायुरूप होकर चला जाता है |
वह मार्ग अन्धकारपूर्ण, अपार, अत्यंत भयंकर तथा पापियों के लिये अत्यंत दुर्गम होता है | यमदूत पाशों में बाँधकर उसे खींचते और मुद्ररों से पीटते हुए उस विशाल पथपर ले जाते हैं | यमदूतों के अनेक रूप होते हैं | वे देखने में बड़े डरावने और समस्त प्राणियों को भय पहुँचानेवाले होते है | उनके मुख विकराल, नासिका टेढ़ी, आँखे तीन, ठोड़ी, कपोल और मुख फैले हुए तथा ओठ लंबे होते हैं | वे अपने हाथों में विकराल एवं भयंकर आयुध लिये रहते हैं | उन आयुधों से आग की लपटें निकलती रहती हैं | पाश, साँकल और डंडे से भय पहुँचानेवाले, महाबली, महाभयंकर यमकिंकर यमराज की आज्ञा से प्राणियों की आयु समाप्त होनेपर उन्हें लेने के लिये आते हैं | जीव यातना भोंगने के लिये अपने कर्म के अनुसार जो भी शरीर ग्रहण करता ई, उसे ही यमराज के दूत यमलोक में ले जाते हैं | वे उसे कालपाश में बाँधकर पैरों में बेडी डाल देते हैं | बेडी की साँकल वज्र के समान कठोर होती है | यमकिंकर क्रोध में भरकर उस बंधे हुए जीव को भलीभांति पीटते हुए ले जाते हैं | वह लडखडाकर गिरता हैं, रोता हैं और ‘हाय बाप ! हाय मैया ! हाय पुत्र !’ कहकर बारंबार चीखता-चिल्लाता है; तो भी दूषित कर्मवाले उस पापी को वे तीखे शुलों, मुद्वरो, खड्ग और शक्ति के प्रहारों और वज्रमय भयंकर डंडों से घायल करके जोर-जोर से डाँटते है | कभी-कभी तो एक-एक पापी को अनेक यमदूत चारों ओरसे घेरकर पीटते हैं | बेचारा जीव दुःख से पीड़ित हो मुर्च्छित होकर इधर-उधर गिर पड़ता हैं; तथापि वे दूत उसे घसीटकर ले जाते हैं | कही भयभीत होते, कही त्रास पाते, कहीं लडखडाते और कहीं दुःख से करुण क्रन्दन करते हुए जीवों को उस मार्ग से जाना पड़ता है | यमदूतों की फटकार पड़ने से वे उद्दिग्न हो उठते हैं और भय से विव्हल हो काँपते हुए शरीर से दौड़ ने लगते हैं | मार्गपर कही काँटे बिछे होते हैं और कुछ दुरतक तपी हुई बालू मिलती है |
जिन मनुष्यों ने दान नहीं किया है, वे उस मार्गपर जलते हुए पैरों से चलते हैं | जीवहिंसक मनुष्य के सब ओर मरे हुए बकरों की लाशें पड़ी होती है, जिनकी जली और फटी हुई चमड़ी से मेढे और रक्त की दुर्गन्ध आती रहती हैं | वे वेदनासे पीड़ित हो जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते हुए यममार्ग की यात्रा करते हैं | शक्ति, भिन्दिपाल, खड्ग, तोमर, बाण और तीखी नोक्वाले शुलों से उनका अंग-अंग विदीर्ण कर दिया जाता हैं | कुत्ते, बाघ, भेडिये और कौएं उनके शरीर का मांस नोच-नोचकर खाते रहते हैं | मांस खानेवाले लोग उस मार्गपर चलते समय आरे से चीरे जाते हैं, सूअर अपनी दाढो से उनके शरीर को विदीर्ण कर देते हैं |
जो अपने ऊपर विश्वास करनेवाले स्वामी, मित्र अथवा स्त्री की हत्या कराते हैं, वे शस्त्रोंद्वारा छिन्न-भिन्न और व्याकुल होकर यमलोक के मार्गपर जाते हैं | जो निरपराध जीवों को मारते और मरवाते हैं, वे राक्षसों के ग्रास बनकर उस पथ से यात्रा करते हैं | जो परायी स्त्रियों के वस्त्र उतारते हैं, वे मरनेपर नंगे करके दौड़ते हुए यमलोक में लाये जाते हैं | जो दुरात्मा पापाचारी अन्न, वस्त्र, सोने, घर और खेत का अपहरण करते हैं, उन्हें यमलोक के मार्गपर पत्थरों, लाठियों और डंडों से मारकर जर्जर कर दिया जाता हैं और वे अपने अंग-प्रत्यंग से प्रचुर रक्त बहाते हुए यमलोक में जाते हैं | जो नराधम नरक की परवा न करके इस लोक में ब्राह्मण का धन हडप लेते, उन्हें मारते और गालियाँ सुनाते हैं, उन्हें सूखे काठ में बाँधकर उनकी आँखे फोड़ दी जाती और नाक-कान काट लिये जाते हैं | फिर उनके शरीर में पिब और रक्त पोत दिए जाते हैं तथा काल के समान गीध और गीदड़ उन्हें नोच-नोचकर खाने लगते हैं | इस दशामें भी क्रोध में भरे हुए भयानक यमदूत उन्हें पीटते हैं और वे चिल्लाते हुए यमलोक के पथपर अग्रसर होते हैं |
इसप्रकार वह मार्ग बड़ा भी दुर्गम और अग्नि के समान प्रज्वलित हैं | उसे रौरव (जीवों को रुलानेवाला) कहा गया है | वह नीची-ऊँची भूमिसे युक्त होने के कारण मानवमात्र के लिये अगम्य हैं | तपाये हुए ताँबे की भांति उसका वर्ण हैं | वहाँ आग की चिनगारियाँ और लपटें दिखायी देती हैं | वह मार्ग कंटकों से भरा हैं | शक्ति और वज्र आदि आयुधो से व्याप्त है | ऐसे कष्टप्रद मार्गपर निर्दयी यमदूत जीव को घसीटते हुए ले जाते हैं और उन्हें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से मारते रहते हैं | इस तरह पापासकत अन्यायी मनुष्य विवश होकर मार खाते हुए दुर्धर्ष यमदूतों के द्वारा यमलोक में ले जाए जाते हैं | यमराज के सेवक सभी पापियों को उस दुर्गम मार्ग में अवहेलनापूर्वक ले जाते हैं | वह अत्यंत भयंकर मार्ग जब समाप्त हो जाता हैं, तब यमदूत पापी जीव को ताँबे और लोहे की बनी हुई भयंकर यमपुरी में प्रवेश कराते है |
वह पूरी बहुत विशाल है, उसका विस्तार लाख योजन का है | वह चौकोर बतायी जाती है | उसके चार सुंदर दरवाजे हैं | उसको चहारदीवारी सोने की बनी हैं, जो दस हजार योजन ऊँची हैं | यमपुरी का पुर्वद्वार बहुत ही सुंदर हैं | वहाँ फहराती हुई सैकड़ों पताकाएँ उसकी शोभा बढाती हैं | हीरे, नीलम, पुखराज और मोतियोंसे वह द्वार सजाया जाता हैं | वहाँ गन्धर्वों और अप्सराओं के गीत और नृत्य होते रहते हैं | उस द्वार से देवताओं, ऋषियों, योगियों, गन्धर्वो, सिद्धों, यक्षों और विद्याधरों का प्रवेश होता हैं | उस नगर का उत्तरद्वार घंटा, छत्र, चंवर तथा नाना प्रकार के रत्नों से अलंकृत हैं | वहाँ वीणा और वेणु की मनोहर ध्वनि गूँजती रहती है | गीत, मंगल-गान तथा ऋग्वेद आदि के सुमधुर शब्द होते रहते हैं | वहाँ महर्षियों का समुदाय शोभा पाता हैं | उस द्वारसे उन्हीं पुण्यात्माओं का प्रवेश होता हैं, जो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं | जिन्होंने गर्मी में दूसरों को जल पिलाया और सर्दी में अग्नि का सेवन कराया हैं, जो थके-मांदे मनुष्यों की सेवा करते और सदा प्रिय वचनबोलते हैं, जो दाता, शूर और माता-पिता के भक्त हैं तथा जिन्होंने ब्राह्मणों की सेवा और अतिथियों का पूजन किया हैं, वे भी उत्तरद्वार से ही पूरी में प्रवेश करते हैं |
यमपुरी पश्चिम महाद्वार भांति-भांति के रत्नों से विभूषित हैं | विचित्र-विचित्र मणियों की वहाँ सीढ़ियाँ बनी है | देवता उस द्वार की शोभा बढाते रहते हैं | वहाँ भेरी, मृदंग और शंख आदि वाद्यों की ध्वनि हुआ करती हैं | सिद्धों के समुदाय सदा हर्ष में भरकर उस द्वारपर मंगल-गान करते हैं | जो मनुष्य भगवान शिव की भक्ति में संलग्न रहते हैं, जो सब तीर्थों में गोते लगा चुके हैं, जिन्होंने पंचाग्नि का सेवन किया हैं, जो किसी उत्तम तीर्थस्नान में अथवा कालिंजर पर्वतपर प्राणत्याग करते हैं और जो स्वामी, मित्र अथवा जगत का कल्याण करने के लिये एवं गौओं की रक्षा के लिये मारे गये हैं, वे शूरवीर और तपस्वी पुरुष पश्चिमद्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं | उस पूरी का दक्षिणद्वार अत्यंत भयानक हैं | वह सम्पूर्ण जीवों के मन में भय उपजानेवाला हैं | वहाँ निरंतर हाहाकार मचा रहता हैं | सदा अँधेरा छाया रहता हैं | उस द्वारपर तीखे सींग, काँटे, बिच्छु, साँप, वज्रमुख कीट, भेडिये, व्याघ्र, रींछ, सिंह, गीदड़, कुत्ते, बिलाव और गीध उपस्थित रहते हैं | उनके मुखोंसे आग की लपटें निकला करती हैं | जो सदा सबका अपकार करनेवाले पापात्मा हाँ, उन्ही का उस मार्ग से पूरी में प्रवेश होता हैं | जो ब्राह्मण, गौ, बालक, वृद्ध, रोगी, शरणागत, विश्वासी, स्त्री, मित्र और निहथ्ये मनुष्य की हत्या कराते हैं, अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करते हैं, दूसरों के धनका अपहरण करते हैं, धरोहर हडप लेते हैं, दूसरों को जहर देते और उनके घरों में आग लगाते हैं, परायी भूमि, गृह, शय्या, वस्त्र और आभूषण की चोरी करते हैं, दूसरों के छिद्र देखकर उनके प्रति क्रूरता का बर्ताव करते हैं, सदा झूठ बोलते हैं , ग्राम, नगर तथा राष्ट्र को महान दुःख देते हैं, झूठी गवाही देते, कन्या बेचते, अभक्ष्य भक्षण करते, पुत्री और पुत्रवधू के साथ समागम करते, माता-पिताको कटुवचन सुनाते तथा अन्यान्य प्रकार के महापातकों में संलग्न रहते हैं, वे सब दक्षिण द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं |
– नारायण नारायण –