पूज्य आसाराम बापूजी के साथ प्रश्न और उत्तर
१] मंत्र के अर्थ में प्रीति कैसे हो ?
अर्थ प्रेमस्वरुप ही तो है | बार-बार जपे, बार–बार अर्थ में गोते मारे तो प्रीति बढती है |
२] ध्यान में मन नहीं लगता | कुसंगति से कैसे बचें ? कामविकार से कैसे बचें ? स्वप्नदोष से कैसे बचें ? पानी पड़ने की बीमारी से कैसे बचें ?
ध्यान-भजन करते तो, मन इधर-उधर जाता है तो चुपचाप बैठते तो मन सुन्न हो जाता है | तो लंबा श्वास लिया और हरि ॐ…. ॐ….. ॐ… ॐ…. ॐ….. किया तो ये मनोराज मिटाने का, ध्यान लगाने का पद्धति है, ये मनोराज भगा देगा |
कुसंगति से कैसे बचें ? कामविकार से कैसे बचें ? स्वप्नदोष से कैसे बचें ? पानी पड़ने की बीमारी से कैसे बचें ?
नाक से श्वास निकाल दी…. उतनी देर योनिमुद्रा को सिकोड़ लिया और हमारी जीवनशक्ति ऊपर को उठ रही है ऐसी भावना की | फिर श्वास लिया.. फिर जब श्वास निकाल लिया तो योनि सिकोड़ लिया ..ऐसे १०-१५ बार किया और फिर उर्ध्व सर्वांगासन आसन करके योनि को १०-१५-२० धक्के मारे वीर्य को ऊपर आने को | तो पानी पड़ने की बीमारी, कामविकार का आकर्षण कम हो जायेगा और “ब्रम्हचर्य की ओर” (दिव्य प्रेरणा प्रकाश) पुस्तक पढना और “ब्रह्मचर्य की बुटी” लेना | उससे वीर्य मजबूत हो जायेगा और कुसंगति से जान छूटेगी |
३] अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिये, पर कैसे पता चले कि, ये आत्मा की आवाज है या मन की आवाज है ?
आत्मा की आवाज होगी तो निर्वासनिक होगी और मन की आवाज होगी तो सवासनिक होगी | अनुष्ठान किया और लड़का लौट के आया, “गुरूजी ! गुरूजी !! अंतरात्मा की आवाज है कि बेटा शादी कर ले |” गुरूजी ने कहा कि ये अंतरात्मा की आवाज नहीं है ये तेरे काम-विकार की, वासना की आवाज है| मन को बोलती है कि भगवान ने बोला है | अगर किसी के प्रति बोलते कि ये ऐसा ही होगा तो क्या हमारे मन में तटस्थता है कि द्वेष है ? अगर द्वेष है तो फिर उसका घाटा होने वाला हो चाहे न होने वाला, हमको लगेगा कि इसको ऐसा होगा | चुनाव के दिनों में जिन नेतोओं के प्रति नफरत थी तो बोले वो हार जाएगा और देवयोग से वो हारा तो बोले देखा, मैं बोल रहा था ना… हार गया | लेकिन ऐसे कई है जिनके लिए हार जाय.. वो जीते है और जिनके लिए जीतेंगे अंतरात्मा के आवाज सुनकर… सट्टा भी लगाये वो हार गये | तो ये अंतरात्मा की आवाज नहीं है अपनी मन की मलिनता, वासना, बेवकूफी होती है |तो अंतरात्मा की आवाज क्या होती है ? तो ज्यों-ज्यों आप निष्पक्ष हो जाओगे , अंत:करण शांत, स्वस्थ हो जायेगा त्यों-त्यों आत्मा की आवाज होगी |
४] जब साधन-भजन के लिए बैठते है तो मन शांत हो जाता है, न प्रार्थना, न बातें और ना ही मन में कोई भाव उठता है तो क्या करें ?
कुछ करने के झंझट से बाहर हो जाओ, जो प्रभु तेरी मर्जी | बातें करके भी क्या करोगे | बातें करते-कराते जो अच्छी बातें हो तो भगवान में शांत हो जाओ, संकल्प रहित हो जाओ | वो तो आ गई तो फिर बातें करने के झंझट को क्यों बुलाते हो | मेरे से मानसिक बातें करोगे तो इतना खुश नहीं होऊगा जितना उस भगवान में शांत हो जाओ तो मैं खुश हो जाऊँगा | शराबी दूसरे शराबी को देख के खुश हो जाता है ऐसे ही भगवान में स्थित होने लगोगे तो मुझे प्रसन्नता होगी | न बाहर से मिलने की कोशिश करो, न बातें करने की कोशिश करों.. जो हो रहा है उसी में आगे बढ़ो | ईश्वर की ओर पुस्तक पढ़ते-पढ़ते, नारायण स्तुति पुस्तक पढ़ते-पढ़ते भगवान के स्वभाव में डूबते जाओ |
५] ध्यान के अवस्था में कैसे पहुँचे ? अगर घर की परिस्थिति साधना के अनुकूल न हो तो क्या करें ?
घर की परिस्थिति ध्यान-भजन के अनुकूल नहीं है इसलिए ध्यान न करें ऐसी बात नहीं है | परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर ध्यान नहीं होता | हर परिस्थिति में ध्यान का माहौल अथवा सावधानी का माहौल, साक्षीभाव का माहौल, अपने चित्त में और वातावरण में बनाना चाहिये और कभी-कभी अलग से एकांत में, साधना की जगह पर, या आश्रम में एकांत जैसे मौन-मंदिर कर लिया.. ८ – ८ दिन के दो-चार, तो ध्यान का रस आने से घर की परिस्थितियों और वातावरण बनाने में भी बल मिल जायेगा |हम घर में थे तो रजोगुण, तमोगुण होता हैं ध्यान-भजन में बरकत आती नहीं ये तो सीधी बात है तो किसी संत महापुरुष ने मौन-मंदिर बनाया था उसमे हम सात दिन रहे जिससे बड़ा बल मिला | अपने कई आश्रमों में मौन-मंदिर हैं और बहुत सारे आश्रम हमने इसी उद्देश्य से बनाये हैं कि जो ध्यान-भजन करना चाहे १५ दिन, महिना, २ महिना या ४ महिना अपने एकांत के आश्रम में रहकर कर सकते हैं, फिर घर जा सकते हैं |घर की परिस्थिति ध्यान-भजन के अनुकूल नहीं है इसलिए ध्यान न करें ऐसी बात नहीं है | परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर ध्यान नहीं होता | हर परिस्थिति में ध्यान का माहौल अथवा सावधानी का माहौल, साक्षीभाव का माहौल, अपने चित्त में और वातावरण में बनाना चाहिये और कभी-कभी अलग से एकांत में, साधना की जगह पर, या आश्रम में एकांत जैसे मौन-मंदिर कर लिया.. ८ – ८ दिन के दो-चार, तो ध्यान का रस आने से घर की परिस्थितियों और वातावरण बनाने में भी बल मिल जायेगा | ६] यदि कोई दीक्षित साधक ,आवेश में आकर ,किसी कारण के बिना, दूसरे साधक को श्राप दे तो वो फलित होगा ? श्राप देना, देने वाले के लिए खतरे से खाली नहीं है । श्राप देना अपनी तपस्या नाश करना है । आवेश में जो श्राप दे देते हैं उनके श्राप में दम भी नहीं होता । जितना दमदार हो और हमने गलती की है, वो श्राप दे चाहे न दे, थोड़ा सा उसके हृदय में झटका भी लग गया, हमारे नाराजी का, तो हमको हानि हो जाती है और थोड़ा सा हमारे लिए उनके हृदय में सद्भाव भी आ गया, तो हमको बड़ा फायदा मिलता है ।
केवल हम उनकी दृष्टि के सामने आयें और उनके हृदय में सद्भाव आया तो हम को बहुत कुछ मिल जाता है । महापुरुषों के हृदय में तो सद्भाव स्वाभाविक होता रहता है लेकिन श्राप तो उनको कभी-कभार कहीं आता होगा अथवा दुर्वासा अवतार कोई श्राप देकर भी लोगो को मोड़ने की कोई लीला हुई तो अलग बात है ।
जरा-जरा बात में गुस्सा होकर जो श्राप देते है और दम मारते है तो आप उस समय थोड़े शांत और निर्भीक रहो ।
नारायण नारायण ! ७] श्री आसारामायण के १०८ पाठ जल्दी-जल्दी करना ठीक है ,या ५ – १० पाठ अच्छे से करना उचित होगा ? आसारामायण का पाठ शांति से भी कर सकते है और विश्रांति पाए तो भी लाभ देते है । लेकिन ,”एक सौ आठ जो पाठ करेंगे ,उनके सारे काज सरेंगे…” कोई कारज (कार्य) की सिद्धि करनी हो ,और यह विश्वास पक्का हो तो वह (जल्दी पाठ करना ) भी ठीक है और वह (धीरे पाठ करना ) भी ठीक है । ८] काम विकार जब जब आता है तो अच्छे तरीके से गिरा देता है | इससे बचने का उपाय बताये | सर्वांग आसन करो और मूलबंध करो सर्वांग आसन करके ताकि वो जो वीर्य बनता है वो ऊपर आये मस्तक में शरीर में और मजबूती करे |
प्राणायाम कस के करो सवा मिनट अंदर श्वास रोके और चालीस सेकण्ड बाहर श्वास रोके. और आवले के चूर्ण में २० प्रतिशत हल्दी मिलाकर ३-३ ग्राम सेवन करो .युवाधन पुस्तक पढ़ा करो |
शादी नहीं किया है तो पहले ईश्वर प्राप्ति करके फिर संसार में जाओ अथवा तो खाली होकर मरो फिर जन्मो तुम्हारी मर्जी की बात है | ९] सेवा और साधना का संगम कैसे हो ? सेवा किसको बोलते हैं? जिसमें अपने स्वार्थ का, वाहवाही का उद्देश्य न हो, उसका नाम है सेवा और वो सेवा कर्म योग है | कर्म योग भी एक साधना है | जप करते हैं तो भक्ति योग हो गया, ज्ञान सुनते, विचारते हैं तो ज्ञान योग हो गया | लेकिन अपने हित का ,अपने स्वार्थ का छोड़कर दूसरों के हित में और वो भी भगवान और समाज को जोड़ने वाली सेवा | संत और समाज को जोड़ने वाली सेवा तो परम सेवा है | तो उस सेवा से कर्म योग हो जाता है, कर्म योग एक उत्तम साधना है | चाहे झाड़ू लगाती है शबरी भीलन, तो भी उसकी साधना है | हम गुरु के द्वार पर सब्जी खरीद के आते थे, बर्तन मांजते , चिट्ठियाँ पढ़ते , चिट्ठियों के उत्तर देते, सत्संग पढ़ते और बापूजी उस पर व्याख्या करते थें| तो पटावाला से लेकर खास अंगद सेक्रेटरी का काम हम करते थे | हमारी सभी साधना हो गयी वो |ऐसा नहीं कि हम अलग से माला घुमाने को ही बैठ जाते थे | माला घुमाने का नियम कर लिया | सारा दिन तो माला नहीं घुमती, सारा दिन साधना नहीं होती, तो कर्म योग भी साधना है, उपासना योग भी साधना है , ज्ञान योग भी साधना है , ये समझ लेना चाहिए | फिर भी १००० बार तो भगवान का नाम लेना ही लेना चाहिए | कम से कम १००० बार भगवान का नाम अर्थ सहित जपने से अनर्थ से रक्षा होती है, और भगवान का नाम अर्थ सहित जपने के बाद उसमें थोड़ा शांत हो जायें| फिर अपनी जो पुस्तके हैं, “नारायण स्तुति” है, “भगवन्नाम जप महिमा” है, “युवाधन” है अथवा “निर्भय नाद” है ये जो भी “पंचामृत” हैं उसे पढें, उसी विचार में थोड़े खो जायें | तो इस प्रकार का इरादा होने से सब ठीक होने लगता है | उद्देश्य ऊँचा हो जाये बस | ईश्वर प्राप्ति का उद्देश्य होने से बेईमानी भी छूट जाएगी| कर्म में से पलायनवादिता भी छूट जाएगी, लापरवाही भी छूट जाएगी | राम काज बिन कहाँ विश्रामा | मैनाक पर्वत खड़ा हो जाता है बीच में कि हनुमानजी आराम कर लो, लम्बा सफर करके आये हो, बोले नहीं-नहीं, भगवान के कार्य के बिना विश्राम कहाँ ? तो उद्देश्य भगवान के कार्य का है तो फिर सेवा में भी ईमानदारी होगी और साधना भी, और जिनको साधना में रूचि है वो सेवा ईमानदारी से करते हैं | जो ईमानदारी से सेवा करते हैं उनका चिन्तन साधनामय हो जाता है | इसलिए सेवा और साधना को अलग नहीं कर सकते आप | दायाँ पैर अलग से निकाल कर बाएँ पैर से नहीं जा सकते आप, बायाँ पैर निकाल कर दाएँ से नहीं जा सकते आप | जैसे दोनों पैर से हम चल सकते हैं ठीक से, ऐसे ही सेवा और साधना | जिसके जीवन में साधना है, उसके जीवन में सेवा का सद्गुण आ ही जाता है और जो सेवा तत्परता से करता है तो उसको साधना का रस सेवा से भी मिलेगा और साधना में भी मन लग ही जाएगा | १०] गृहस्थ जीवन में कई बार साधना से विक्षेप होता है | इससे कैसे बचें ? गृहस्थ जीवन में साधना से विक्षेप होता है तो गृहस्थ छोड़कर भागो | तो जहाँ भागोगे वहाँ भी विक्षेप होगा ,विक्षेप से भागो मत | अपने मन की हो तो खुश मत हो और अपने मन के विपरीत हो तो विक्षिप्त मत हो | अपने मन के नही हुई तो चलो हम चाहते हैं ऐसी नही हुई तो कोई सत्ता है, जो उसके चाह का हुआ है, तो भगवान ने अपना चाहा किया वाह-वाह | अपने मन की होती है तो हम फसते हैं आसक्ति में , अपने मन की नही हुई तो हमे मुक्ति का मजा आएगा, क्या फर्क पड़ता है ? तो विक्षेप कहाँ रहेगा ? विक्षेप उन्हीं बेवकूफ लोगों को होता है, जो अपने मन की ठानते हैं और नही होती है तो परेशानी पैदा करते हैं | प्रकृति के, ईश्वर के अथवा नियम के आड़े खड़े होते हैं वे लोग परेशान होते हैं | मैं तो बड़ा परेशान हूँ , मैं तो बड़ा परेशान हूँ, मैं तो बड़ा परेशान हूँ | अरे संसार के नियम हैं, सब एक व्यक्ति की चाही नही होगी, अपने मन की चाही सबकी नही होती और थोड़ी-बहुत किसी की होती है | हम जो चाहते सब होता नही, जो होता है वो टिकता नहीं , जो होता है वो भाता नही, और जो भाता है वो टिकता नही | ये कथा तो हमने बार-बार कही है | अपने मन की, किसी की चाहे रामजी हो, चाहे ईसामसीह हो, चाहे बड़ा अवतारी हो, अपने मन की सब नही होती | अगर सब किसी एक व्यक्ति या एक अवतार के मन की हो तो प्रकृति में उथल-पुथल हो जाये , व्यवस्था भंग हो जाये | वो तो जो होता है, आदि नियम है, उसी अनुसार होगा | हम जो चाहते वो सब होता नही, जो होता है वो सब भाता नही, और जो भाता है वो टिकता नही | इसी में नया रस है, आनंद है और उन्नति है | भाया, मेरी पत्नी सदा रहे, मेरा पति सदा रहे, मेरा बेटा सदा रहे | तो टिकेंगे क्या ? अगर टिके तो संसार नर्क हो जाये | ये अच्छा है मरते हैं तो नये आते हैं, जरा फुल खिलते रहते हैं | मेरी दुकान मिटे नही, मेरा ये मिटे नही, वो मिटे नही, ये मिटे नही | कौन चाहेगा अपना कल्पना का संसार हट जाये, मिट जाये | लेकिन वो मिटता है, हटता है, तो नया आता है, अच्छा है न | तो विक्षेप, विक्षेप से भागो नही, विक्षेप न हो ऐसे ज्ञान में रहो | मन में विक्षेप आता है, लेकिन जैसे आग लगती है जंगल में तो आप सरोवर में खड़े तो जाते हैं तो आग से बच जाते हैं | ऐसे ही जब मन में विक्षेप आये तो ज्ञान के तालाब में आ जाओ | ११] पूज्य गुरुदेव, संसार सत्य क्यों भासता है ?संसार मिथ्या है, यह बार बार सत्संग में सुनने को मिलता है, मगर यह सत्य क्यों भासता है ? संसार नश्वर है, मिथ्या है, धोखा है, यह बार बार सुनते हैं फिर भी संसार में मन क्यों भागता है ? उधर के भागने की आदत पुरानी है और सुना है उसमें ज़रा दृढ़ता कम है इसीलिये बार बार भागता है, भागे तो भागे लेकिन तुम जागे रहो , यह मन भाग रहा है अब मैं भागु या जागु, मैं भगवान का हूँ, हे भगवान मन भाग रहा है अब इसके पीछे मैं क्यों भागु, मैं तो तेरा हूँ, ऐसे करते करते भगवान के भाव में आ जाओ, तो भागने से बचाव हो जायेगा, जैसे घर में कोई कुत्ता बिल्ली आ जाए तो आप दूध घी दही की रक्षा कर लेते हो जोर से आवाज लगाकर , ठीक ऐसे ही मन की रक्षा कर लो| हे हरि, हे गोविन्द, हे प्रभु, आ गये चोर, संसार में भागने वाली वासना आ गयी महाराज, ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ प्रभुजी, प्यारेजी, गुरूजी ॐ, हरि ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हा हा हा तो मन को भगवान में लगा दो और क्या, तुलसीदास जी ने कहा प्रभु यह मेरा हृदय नहीं है यह तो आपका घर है लेकिन इसमें चोर घुस गए हैं कभी काम, कभी क्रोध, कभी लोभ , कभी मोह, ऐसे कई चोर घुस गए हैं आप जरा ख्याल करो| लोग मुझे साधु बोलते हैं लेकिन मैं तो कभी काम में ,कभी क्रोध में ,कभी लोभ-मोह में फिसलता हूँ| लोग बोलेंगे भगवान का भक्त होकर ऐसा करता है मेरी ज़िन्दगी का भी सवाल है तो आपकी इज्ज़त का भी तो सवाल है | मम हृदय भवन प्रभु तोरा, ताहि बसे आई बहु चोरा, इसमें बहुत चोर घुस गए हैं , मैं एकल अमित भट मारा कोई सुनत नहीं मोर पुकारा, रघुनायक बेगी करो सम्हारा, जल्दी सम्भाल लो, यह आपके ह्रदय को आप ही सम्भालो नहीं तो विकार इसे नोच लेंगे | महाराज महाराज हरि हरि सुबह शाम कमरा बंद कर के भगवान को पुकारो, रोओ, नाचों , हँसो , लम्बे पड़ जाओ, अंदर से बल मिलेगा, भगवान संभाल लेंगे |